ये अखिलेश यादव का मास्टर स्ट्रोक है. कल तक भाजपाई मैनेजर राजभरों के मसीहा का दावा करने वाले ओमप्रकाश राजभर को फिर से अपने पाले में लाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए थे. अपने अनिश्चित स्वभाव और सौदेबाजी के लिए कुख्यात सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के नेता ओमप्रकाश राजभर भी लगातार भाजपा को सियासी लाइन दे रहे थे. लेकिन भारतीय राजनीति में चरखा दांव के जन्मदाता मुलायम सिंह के बेटे ने पिता से चरखा दांव सीख ही लिया. और इसी चरखा दांव ने भाजपाई सिपहसालारों को चारों खाने चित्त कर दिया. राजभर साइकिल के डंडे पर बैठ गए.
सत्ता को सूंघ रहे राजभर ने हाथ पांव तो बहुत मारा लेकिन उनको अपनी सियासी हैसियत का अंदाज़ा था. ओमप्रकाश राजभर की जातीय गोलबंदी और उसकी सियासी ब्रांडिंग से बखूबी परिचित अखिलेश यादव ने सबसे पहले राजभर समाज में ही घुसपैठ की. बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे राम अचल राजभर को सपा के पाले में लाने के लिए अखिलेश यादव ने ज़रा भी देर नहीं की. रामअचल राजभर का भी अपनी बिरादरी में बड़ा सम्मान है. इसके बाद अगला निशाना था, सुखदेव राजभर. एक दिन बसपा के कद्दावर नेता और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने अखिलेश यादव की जमकर तारीफ़ की और अपने बेटे को समाजवादी पार्टी की सदस्यता दिला दी. साथ ही अखिलेश यादव को पिछड़े, वंचितों, दलितों का नेता बताया. सुखदेव राजभर का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और अभी हाल ही में उनका देहान्त हो गया. श्रद्धाजंलि देने पहुंचे अखिलेश यादव की राजभर परिवार से आत्मीयता छिपी नहीं रही. अखिलेश यादव के इन दो फैसलों ने सुभासपा चीफ की नींद उड़ा दी थी. जातीय वोटबैंक में सेंधमारी के ख़तरे, जातीय प्रभुत्व पर डेंट लगने का ख़तरा, भाजपा से एक बार पहले अपमानजनक विदाई के कॉकटेल को राजभर समझ रहे थे. और इसी समझ पर अखिलेश यादव ने सही समय पर सही वजन का समाजवादी हथौड़ा मार दिया.
जातीय अस्मिता वाले प्रदेश में राजभर वोटों का ख़ासा महत्व है. बात अगर पूर्वांचल की करें तो लगभग 146 सीटों पर राजभर वोट प्रभावी संख्या में है. पूर्वांचल के 29 जिलों में राजभरों को ओमप्रकाश राजभर अपना पीला गमछा पहना चुके हैं. ओमप्रकाश राजभर ने हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में अपनी ताकत दिखाई भी थी. जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में सुभासपा से जुड़े 117 सदस्य जीते थे. 2700 गाँवों में पार्टी के प्रधान चुने गए और 1800 बीडीसी सदस्य जीते. अखिलेश यादव के संसदीय क्षेत्र आज़मगढ़ और बलिया में बीजेपी को जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव हराने में राजभर की महत्वपूर्ण भूमिका थी.
सुभासपा से गठबंधन के साथ ही समाजवादी मिशन 2022 अखिलेश यादव के लिए थोड़ा और राहत लेकर आया है. भाजपा की गैर यादव ओबीसी सोशल इंजीनियरिंग अबकी हिचकोले खाती दिख रही है. जहाँ भाजपा के तमाम रणनीतिकार और समर्थक ये सोचकर खुश हुए जा रहे हैं कि भाजपा ने जो पिछड़ों की पार्टी का मुखौटा ओढ़ा है, वह 2022 में भगवा ब्रिगेड के जीत की बुनियाद रखेगा. और गिरवी पड़ा सवर्ण मतदाता हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की हकीमी गोली से कमल के फूल को लेकर दौड़ता रहेगा. तो 5 कालीदास मार्ग पर फिर कमल मुस्कुराएगा. लेकिन इतना साफ़ दिखता है कि भीषण मंहगाई, बेरोजगारी और स्वास्थ्य के मुद्दे पर पिसता प्रदेश धार्मिक ध्रुवीकरण पर वोट नहीं करने जा रहा है. भाजपा में मुख्यमंत्री बनने की हसरत पाले एक नेता जी के ख़ास व्यक्ति से बात हो रही थी. उसने कहा कि अबकी एक वोट भाजपा को जिताने के लिए पड़ेगा, और एक वोट भाजपा को हराने के लिए पड़ेगा. और इस ध्रुवीकरण में हम लोग जीत जाएंगे. मैंने कहा कि आपकी बात से सहमत हूँ. लेकिन आपकी बात ठीक है, परिणाम का मूल्यांकन गलत है. 2 और 2 चार होते हैं. और आप पाँच जोड़ने की खुशफ़हमी में हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि भाजपा विरोधी मत ज़्यादा संख्या में है. ये और बात है कि भाजपाई सत्ता में आम मतदाता बोल नहीं रहा है. रसोई गैस की बढ़ती क़ीमतों से परेशान जब आम आदमी पेट्रोल पम्प की लाइन में ‘आज फिर दाम बढ़ गया’ सुनता है तो मन मज़बूत करता है कि बताएंगे सरकार आपको सरकार क्या होती है. तेल भरवाते लोग अब तो गाली गलौज़ करते भी नज़र आने लगे हैं. और इन लोगों की जाति नहीं होती. और ये लोग भाजपा को हराने वाले को ही वोट करेंगे. फ़िलहाल भाजपा को हराने का बूता समाजवादी पार्टी में ही नज़र आता है. देखना दिलचस्प होगा कि विक्रमादित्य मार्ग स्थित सपा कार्यालय पर बढ़ती नेताओं की भीड़ सपा को सत्ता समर में कहाँ तक लेकर जाती है. लेकिन मेरी समझ में अखिलेश अपराजेय दिख रहे हैं.