आधुनिक शिक्षा के जनक सर सैयद अहमद ख़ाँ का जन्म 17 अक्टूबर 1817 में दिल्ली के सादात (सैयद) ख़ानदान में हुआ था। उन्हे बचपन से ही पढ़ने लिखने का शौक़ था और उन पर पिता की तुलना में माँ का विशेष प्रभाव था। माँ के कुशल पालन पोषण और उनसे मिले संस्कारों का असर सर सैयद के बाद के दिनों में स्पष्ट दिखा, जब वह सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में आए। 22 वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु के बाद परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और थोड़ी सी शिक्षा के बाद ही उन्हें आजीविका कमाने में लगना पड़ा। उन्होने 1830 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी में लिपिक के पद पर काम करना शुरू किया, किंतु 1841 ई. में मैनपुरी में उप-न्यायाधीश की योग्यता हासिल की और विभिन्न स्थानों पर न्यायिक विभागों में काम किया। हालांकि सर्वोच्च ओहदे पर होने के बावज़ूद अपनी सारी ज़िन्दगी उन्होने फटेहाली में गुज़ारी। 1858 में मुरादाबाद में आधुनिक मदरसे की स्थापना की।
1863 में गाजीपुर में भी एक आधुनिक स्कूल की स्थापना की।
उन्होने “साइंटिफ़िक सोसाइटी” की स्थापना की, जिसने कई शैक्षिक पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित किया उर्दू तथा अंग्रेज़ी में द्विभाषी पत्रिका निकाली।
को अलग होना ही है। उन्होंने इंग्लैंड की अपनी यात्रा 1869-1870 के दौरान ‘मुस्लिम केंब्रिज’ जैसी महान शिक्षा संस्थाओं की योजना तैयार कीं। उन्होंने भारत लौटने पर इस उद्देश्य के लिए एक समिति बनाई और मुसलमानों के उत्थान और सुधार के लिए प्रभावशाली पत्रिका तहदीब-अल-अख़लाक (सामाजिक सुधार) का प्रकाशन प्रारंभ किया।
उन्होने 1886 में ऑल इंडिया मुहमडन ऐजुकेशनल कॉन्फ़्रेंस का गठन किया, जिसके वार्षिक सम्मेलन मुसलमानों में शिक्षा को बढ़ावा देने तथा उन्हें एक साझा मंच उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जाते थे।
मई 1875 में उन्होने अलीगढ़ में ‘मदरसतुलउलूम’ एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। उनकी परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया। 1857 की महाक्रान्ति और उसकी असफलता के दुष्परिणाम उन्होंने अपनी आँखों से देखा। उनका घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी माँ जान बचाकर एक सप्ताह तक घोड़े के अस्तबल में छुपी रहीं। अपने परिवार की इस बर्बादी को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उनके दिलो-दिमाग़ में राष्ट्रभक्ति की लहर करवटें लेने लगीं। इस बेचैनी से उन्होने परेशान होकर भारत छोड़ने और मिस्र में बसने का फ़ैसला किया। अंग्रेज़ों ने उनको अपनी ओर करने के लिए मीर सादिक़ और मीर रुस्तम अली को उनके पास भेजा और उन्हे ताल्लुका जहानाबाद देने का लालच दिया। यह ऐसा मौक़ा था कि वे इनके जाल में फँस सकते थे। वे धनाढ्य की ज़िन्दगी बसर कर सकते थे, लेकिन वे बहुत ही बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति थे। उन्होने उस वक़्त लालच को बुरी बला समझकर ठुकरा दी और राष्ट्रभक्ति को अपनाना बेहतर समझा।
बाद में उन्होने यह महसूस किया कि अगर भारत के मुसलमानों को इस कोठरी से नहीं निकाला गया तो एक दिन हमारी क़ौम तबाह और बर्बाद हो जाएगी और वह कभी भी उठ न सकेगी। इसलिए उन्होंने मिस्र जाने का इरादा बदल दिया और कल्याण व अस्तित्व की मशाल लेकर अपनी क़ौम और मुल्क़ की तरफ़ बढ़ने लगे। वह इस्लामी शिक्षा व संस्कृति के चाहने वाले थे। उनकी दूरदृष्टि अंग्रेज़ों के षड़यंत्र से अच्छी तरह से वाक़िफ़ थी। उन्हें मालूम था कि अंग्रेज़ी हुकूमत भारत पर स्थापित हो चुकी है और उन्होने उन्हें हराने के लिए शैक्षिक मैदान को बेहतर समझा। इसलिए अपने बेहतरीन लेखों के माध्यम से क़ौम में शिक्षा व संस्कृति की भावना जगाने की कोशिश की ताकि शैक्षिक मैदान में कोई हमारी क़ौम पर हावी न हो सके। मुसलमान उन्हें कुफ्र का फ़तवा देते रहे बावज़ूद इसके क़ौम के दुश्मन बनकर या बिगड़कर न मिले बल्कि नरमी से उन्हें समझाने की कोशिश करते रहे। वे अच्छी तरह से जानते थे इसलिए उनकी बातों की परवाह किये बिना वे अपनी मन्ज़िल पर पहुँचने के लिए कोशिश करते रहे। आज मुस्लिम क़ौम ये बात स्वीकार करती है कि सर सैयद अहमद खाँ ने क़ौम के लिए क्या कुछ नहीं किया ,आधुनिक शिक्षा के इस महान व्यक्तित्व का नाम ता कयामत रोशन रहेगा आज हमें उनके आदर्शों को अपनाकर शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक लगानी होगी ।जिस कठिनाई और मुसीबत को झेलते हुए उन्होंने कौम और मिल्लत की खिदमत की वह एक मिशाल है,न वह थके ,न झुके और न डिगे बल्कि रास्ते के पत्थरों को हटाते हुए आगे बढ़ते रहे और अंत में उन्होंने एक ऐसा दरख्त लगाया कि जिसका मीठा फल लोग सदियों तक खाते रहेंगे।
PUBLISH AND POST BY-MOHD ADNAN DURRANI